दहशत-गर्दी के साये में है जम्मू-कश्मीर । आतंकवाद के इस सिस्टम की टेकनोलोजी भले ही पड़ोसी मुल्क की हो मगर पूर्जे देशी जान पड़ते हैं । याने कि कहीं न कहीं अपने ही लोगों का संरक्षण । आये दिन हो रहे आंतेकी हमले से सामान्य जीवन भले ही अस्तव्यस्त न हो, सेन्य और अर्ध सैनिक बलों की अच्च्छी खासी मुशक्कत और इन सबके बीच स्थानिय प्रशासन की अदासीनता ।
आये दिन की मुठभेड़ में बली चट़ती है जवानों की । कभी दो तो कभी तीन और कभी पूरी टुकड़ी की टुकड़ी ही साफ हो जाती है । अब पंपौर आतंकी हमले को ही लीजिये । मुठ-भेड़ में अर्ध सैनिक बल की पूरी की पूरी टुकड़ी ही साफ हो जाती है । याने कि 8 जवान और अधिकारी कुर्बान । जम्मू.-कश्मीर विधान-सभा में आतंकियों की खुले आम हिमायत होती है । परिवार के आंसू थमने का नाम नहीं लेते ।
खुले आम आतंकी हमले बिना स्थाननीय स्मर्थन के असंभव । एक घर जिसके सेहन में बच्चे खेल रहे हैं औरतें खाना बना रही हैं और बुजुर्ग हुक्का गुड़़-गुड़ा रहे हैं या फिर एक धार्मिक स्थल जहां इबादत हो रही है से अचानक ही फायरिंग शुरु हो जाती है । कहीं-कहीं समर्थन में नारे के साथ विरोध । माजरा समझ से परे है और हालात हैं बेकाबू । जेहन में बस एक ही सवाल आखिर कब थमेगा कुर्बानी का यह सिलसिला ।
सैनिकों की कुर्बानी को शाहदत के जामे के साथ जरुरी है सुलझी हुई नीति के साथ बेकाबू परिस्थितियों का मुकाबला । विदेश नीति के साथ जरुरी है आंतरिक नीतियों मे बदलाव की । इंतजार है कुर्बानी के इस सिलसिले के थमने का....