दिल्ली का जंतर-मंतर बन गया है रैलियों का अखाड़़ा। जिसके चलते कभी-कभी चरमरा जाती है प्रषासनिक व्यवस्था और लग जाता है घंटों जाम। साथ ही अस्त-व्यस्त हो जाती है आम जिंदगी। मंहगाई के खिलाफ हल्ला बोलना हो तो या फिर दिलाना हो दामिनी को इंसाफ और या फिर दिलानी हो समलैंगिकता को मान्यता जुड़ जाइये ट्विटर या फेस बुक से और कीजिये घरना-प्रदर्षन। इन सब के लिये
जंतर-मंतर तो है ही । अनुमान है कि अकेले जंतर-मंतर हर रोज में लगभग कम से कम 10-20 रैलियों के माध्यम से धरना -प्रदर्षन होता है और जिसमें आने वालों की नफरी औसतन 5 से 10 हजार होती है। यदि प्रदर्षन किसी राजनैतिक दल विषेष का हो तो लग जाता है हजूम और इसका आकार फैल जाता है संसद मार्ग तक। लग जाता है लंबा जाम। जिसका असर दिख्ता है कनोट प्लेस, मंडी हाउस, जनपथ तक । और चरमरा जाती है यातायात व्यवस्था। घंटों तक करना पड़ता है बसों का इंतजार । कभी-कभी तो मेट्रो के एक दो स्टेषन भी हो जाते हैं बंद।
खैर इन सब से का जो भी अंजाम हो खौमचे और पटरी व्यापारियों की तो निकल पड़ती है। अब रैली में आये लोग भूख लगने पर कुछ तो खरीदके खायेंगे ही और प्यास लगने पर पानी तो खरीदना पड़ेगा ही। फिर उनका क्या जिनका डेरा यहाँ परमानेंट है। यह तो संसार का नियम है कहीं लाभ तो कहीं घाटा........