आतंकवादी वारदातों में क्यों होती है सांप्रदाय विशेष की भागीदारी
वो असले से भरी गाड़ी सीआरपीएफ के जवानों से भरी बस से भिड़ा देते हैं और विस्फोट में हमारे 40 जवान मारे जाते हैं । बुद्धिजीवी,सियासतदान और देश के राजनीतिज्ञ इसे शाहदत का जामा पहना देते हैं और देश में शुरू होता है श्रद्धांजली सभाओं वा केंडल मार्च का दौर ।
कुछ दिन मामला टीवी चेनल्स और मीडिया में परिचर्चाओं और कवि सम्मेलन के रूप में गर्म रहता है और उसके सब-कुछ सामान्य । रह जाती हैं तो बस इंसाफ की तलाश में भटकती मारे गये जवानों के परिवार की अश्रु पूरित आँखें । मदद के साथ कहीं ज्यादा जरूरी है मृतको को इंसाफ ।
क्या कसूर है उस छह माह के बच्चे का या फिर दरवाजे पर पिता के लौटने का इंतजार करती 10-12 साल की बच्ची का या फिर राजस्थान की मरूभूमी में अपने पति का इंतजार करती दो आँखें घर कब आओगे ।
सरहद पार से की गई साजिश को हमारे देश में अंजाम दिया जाता है और अंजाम देने वाले कोई गैर नहीं हमारे बीच हमारे ही देश के बंदे होते हैं । वो वारदात को अंजाम देते हैं और हम हाथ मलते हैं । वो हमारी गेरत को ललकारते हैं और हम दुहाई देते हैं ।
जम्मू-कश्मीर के सीमावर्ती इलाकों में आतंकवादी हमले आम हैं । घर और धार्मिक स्थल आतंवादियों के पनाहगार होने से लोकल बाशिंदों की भागीदारी से इंकार भी नहीं किया जा सकता ।
आतंकवाद देश का आंतरिक मामला है और बिना अपने ही लोगों की भागीदारी के आतंकवादी वारदातों को अंजाम नहीं दिया जा सकता । जाहिर है इनसे निपटने की जिम्मेदारी भी मौजूदा सियासतदानों की है ।
क्या फरक पड़ता है कि आतंकी वारदातों के लिये जेश-ए-मुहम्मद जिम्मेदार है या लश्करे तोयबा या फिर अलकायदा । जरूरी है तो बस अपने ही घर में इंसान की खाल में छिपे भेड़ियों से निपटना ।
विचारणीय है तो बस आतंकी हमलों में एक सांप्रदाय विशेष से जुड़े आदमी की भागीदार अब वो अब वो अमेरिका के वल्ड ट्रेड सेटर हुआ आतंकी हमला हो या फिर संसद पर अटेक और या फिर जम्मू कश्मीर के पुलवामा में । क्या मिल पायेगा के.पी.एस. गिल जैसा सुपर कोप हीरो.......