लोकसभा चुनाव के चलते दिल्ली के राजनैतिक गलियारों में 1984 के दंगों का मसला फिर गरमाया। पक्ष और प्रतिपक्ष की परसपर बयानबाजी के चलते राजनीतिक समिकरण के पेच कुछ ज्यादा ही उलझे नजर आते हैं । तंदूर गरम है और हर कोई है अपनी रोटी सेकने में मशगूल । और हो भी क्यों न हाथ लगी बाजी को छोड़ना कहां की अकलमंदी है भला ।
आज 30 साल के बाद पक्ष-विपक्ष फिर से जागा है वो भी वोट बैंक की खातिर। ऐसा नहीं है कि समय-समय पर धरने और प्रदर्षनों के चलते हालात में कोई खास बदलाव नहीं है। न्याय की आश में हैं पीड़ित परिवार कभी कोर्ट तो कभी । मौजूदा आंकड़़़ों के अनुसार 1984 के दंगों में मरने वालों की संख्या 8000 के लगभग थी जिसमें से 3000 मौतें दिल्ली में हुई थी । यह दंगे ततकालिन प्रधान मंत्री श्रीमति इंदिरा गांधी के अपने सिख ड्राइवर के हाथों से मारे जाने पर भड़के थे और षिकार हुए बेगुनाह। रंजिश का कारण था हरमंदर साहिब में ब्लयु स्टार ओपरेशन। जांच ऐजेंसियों के अनुसार दंगों में हुए जान-माल के नुकसान का कारण था प्रषासनिक ढ़ील और ततकालीन सरकार की उदासीनता। और उभर कर आये कुछ नाम उस समय के जाने माने नेता स्वर्गिय हरकिशन लाल भगत,जगदीश टाइटलर एवं सज्जन कुमार। दंगों के लिए 442 लोगों को दोषी पाया गया जिनमें से 49 को कोर्ट ने आजीवन कारावास, 3 को दस साल की सजा तथा 6 पुलिसकर्मियों को दोषी करार किया। 2013 में कड़कड़डूमा कोर्ट ने भूतपूर्व काउंसलर बलवान खोखा, भूतपूर्व काउंसलर महिन्दर यादव सहित दो अन्य को दोषी करार किया।
रंगनाथ मिश्रा और नानवटी कमीषन की जांच रिपोर्ट एवं रिकोमंडेशन के बावजूद भी पीडित परिवार को आज भी है न्याय और मुआवजे की आश । वर्तमान सर्गमियों के चलते आने वाले समय में पीड़ितों को इंसाफ भले न मिले एक अच्छा वोट बैंक जरुर तैयार हो जायेगा।