टाइम्स नॉव पर आयोजित एक परिचर्चा में भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय प्रवक्ता नूपुर शर्मा द्वारा मोहम्मद पैगंबर पर किये गये खुलासे को बिना दोनों पक्षों की सुनवाई के सर्वोच्च न्यायालय की एक खंडपीठ के दो न्यायधीश द्वारा की गई टिप्पणी आजकल सुर्खियों में है । टीवी चैनल को परिचर्चा का विषय एवं राजनीतिक हलकों को जैसे मुद्दा मिल गया हो । गौर फरमाने की बात यह है कि यह फैसला नहीं महज एक टिप्पणी है । माननीय जज साहेबानों ने उदयपुर में कन्हैया लाल की गर्दन काट कर की गई निर्मम हत्या के बाद हत्यारों द्वारा मिसाल के तौर पर सार्वजनिक किये जाने का ठीकरा नूपुर शर्मा पर फोड़ा कहा कि उदयपुर की घटना उनके बयान का ही अंजाम है साथ ही दिल्ली पुलिस को नूपुर शर्मा को गिरफ्तार ना किये जाने पर लगाई फटकार । हालांकि यह उस टीवी डिबेट में प्रतिभागी द्वारा हिन्दू धर्म के खिलाफ इस्तेमाल किये गये अपशब्दो से उत्तेजित हो मात्र प्रतिक्रिया थी ।
यदि टीवी पर आयोजित परिचर्चा के दौरान व्यक्त की गई प्रतिक्रिया को विवादस्पद एवं दंगा भडकाऊ बयान माना जा सकता है तो असुद्दीन ओबेसी के सार्वजनिक तौर पर किये गये के ऐलान को हमारे देश के न्यायविद किस श्रेणी में लेंगे I यदि मामला शाहीन बाग का हो या फिर उत्तर पूर्वी ऑर दक्षिण पूर्वी दिल्ली में भड़के दंगे क्यों अपना लेते हैं राजनीतिक दल एवं न्याय प्रणाली संप्रदाय विशेष के लिये एक पक्षीय रुख I हाल ही में भड़के करौली एवं जहाँगीर पुरी के दंगे किसी से छिपे नहीं हैं I यदि मामला अखलाक का हो या फिर हाथरस का हमारे चंद बुद्धिजीवी एवं वामपंथी दल इंसाफ के लिये मोर्चा तान लेते हैं I वहीं जब बात करौली या फिर उदयपुर की आती है तो समाज के इस विशेष तबके को साँप सूंघ जाता है I बस भाईचारा एवं शांति बनाये रखने का ज्ञान पेला जाता है I क्यूँ नहीं दोनों ही मामले में अपराधियों को सजा की मांग की जाती है I भले ही हम आजादी की 75 वी वर्षगाँठ को आजादी के अमृत उत्सव के रूप में मना लें लेकिन आजादी के इतने साल बाद भी दलित एवं सांप्रदाय विशेष के तुष्टीकरण की मानसिक्ता आज भी हमारी राजनीतिक एवं न्यायिक प्रणाली में कहीं न कहीं झलक ही जाती है I
हाल ही में दिये गउदयपुर मामले में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अपने बयान में गर्दन काटकर हत्या के बाद सोशल मीडिया में वीडियो वायरल करना नादानी मानते हैं बचकानी हरकत मानते हैं I वही राहुल गांधी जब बात हाथरस की या जहाँगीर पुरी दंगे के दोषियों के खिलाफ कार्यवाही की आती है तो वह मामले को दलित या संप्रदाय विशेष पर सितम का रुख देकर इंसाफ का झंडा लेकर दल बल सहित मैदान में कूद जाते हैं I मौजूदा परिप्रेक्ष में जेहन में एक ही सवाल आखिर कब तक चलेगी वर्ग विशेष के तुष्टीकरण के लिये देश में दोहरी मानसिक प्रणाली ........